:: نعت پاک ::
آیتیں پڑھتے رہے مقدور بھر
عالَمِ رویاء میں تھے مقدور بھر
برسوں تنہائی میں ذکر و آگہی
پھر وحی کے سلسلے مقدور بھر
ہیں معلّم آپ یا نورُ الھدیٰ
ہے قرآں سب واسطے مقدور بھر
راہ کے کانٹوں کے کھائے خوب زخم
ظلم کے پتّھر سہے مقدور بھر
جنکو چاہا داخلِ اسلام ہوں
ظلمتوں سے پھر گئے مقدور بھر
کم تھے گنتی میں مگر حق پر اَڈِگ
جیت کے در پھر کُھلے مقدور بھر
کفر ٹوٹا ربّ کعبہ کی قسم
شرک کے در بند ہوئے مقدور بھر
معجزہ شقّ القمر، معراجِ شب
کس رسالت کو ملے مقدور بھر
رحمۃ الّلعالمیں صدقے ترے
خیر میں اُخریٰ رہے مقدور بھر
کلام : مسعود بیگ تشنہ ،اندور ،انڈیا
رمضان المبارک 30، 1444 ہجری سنہ
:: नात पाक ::
आयतें पढ़ते रहे मक़दूर भर
आलमे रोया में थे मक़दूर भर
बरसों तन्हाई में ज़िक्र ओ आगही
फिर 'वही' के सिलसिले मक़दूर भर
हैं मुअल्लिम आप ऐ नूरुल हुदा
है क़ुरआं सब वास्ते मक़दूर भर
राह के कांटों के खाए ख़ूब ज़ख्म
ज़ुल्म के पत्थर सहे मक़दूर भर
जिनको चाहा दाख़िले इस्लाम हों
ज़ुल्मतों से फिर गए मक़दूर भर
कम थे गिंती में मगर हक़ पे अडिग
जीत के दर फिर खुले मक़दूर भर
कुफ़्र् टूटा रब्बे काबा की क़सम
शिर्क के दर बंद हुए मक़दूर भर
मोजज़ा शक़्क़ुल क़मर, मेराजे शब
किस रिसालत को मिले मक़दूर भर
रहमतुल्लिआलमीं सदक़े तेरे
ख़ैर में उक़बा मिले मक़दूर भर
कलाम : मसूद बेग तिश्ना, इंदौर, इंडिया
30 रमज़ानुल मुबारक, 1444 हिज्री
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